संजय बेचैन ,शिवपुरी
देश की अति पिछडी जनजातियों में शामिल सहरिया आदिवासी शिवपुरी में बाहुल्य में हैं । सरकार की नजर में हर आदिवासी भूमि स्वामी भी है मगर कागज कुछ और जमीनी हकीकत कुछ और है । अपनी ही पटटे की जमीनों पर आदिवासीयों का दबंगों ने प्रवेश निषेध कर रखा है। गांव गांव मे मजबूरी के मारे इन आदिवासियों का मुख्य और एक मात्र पेशा अब मजदूरी है। इनके बच्चों का शिक्षा व स्वास्थ्य का स्तर बेहद चिंताजनक हद तक गिरा हुआ है।
मझेरा नीमडांडा आदि सैंकडों सहरिया बाहुल्य आदिवासी गांवों में हालात एक से ही हैं सहरिया बच्चों का बचपन समय से पूर्व ही परिपक्व हो जाता है। आदिवासियों के छोटे छोटे बच्चे मात्र 12 वर्ष की उम्र में ही दिहाड़ी मजदूरी के लिए मैदान में उतार दिये जाते हैं वे दिनभर में बीस से पच्चीस रुपये कमाकर अपने परिवार की गाड़ी खींचने में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। पेड़ों के नीचे झूलों में आदिवासी माँ अपने दूध पीते बच्चों को लिटाकर काम पर निकल जाती हैं।
ऐसे में आदिवासियों की छोटी छोटी बालायें जो मुश्किल से छह सात वर्ष की होती है अपने भाई बहिनों की देखभाल बड़ी शिद्दत से करती हैं। आदिवासियों के नंगे भूखे बच्चों के चेहरों पर खिंची चिंता की लकीरें अच्छे खासे पत्थर दिल इंसान के दिल को भी दहला देंगी।
सहरिया आदिवासी समुदाय की बस्तियों में पुरुष वक्त के थपेड़ों, अर्थाभाव व रोगों के भार से बुजुर्ग दिखाई देने लगे हैं। आदिवासी कल्याण योजनाओं के लाभ से अछूती सहरिया बस्तियों के लोगों के समक्ष विकराल समस्याऐं मुंह खोले खडी हैं । एक बडी समस्या उनके श्रम का उचित प्रतिफल न मिलना व सरकार द्वारा इनकी बेरोजगारी दूर करने के लिए कोई ध्यान न देना है। सहरिया आदिवासी खदान ठेकेदारों एवं खेत स्वामियों के शोषण का भी शिकार हैं। कई ठेकेदार तो इन आदिवासियों के साथ बंधुआ मजदूरों से भी बुरा व्यवहार करते हैं। शहर के पास स्थित आदिवासि महिलाओं को समाज के एक विशेष वर्ग की बदनीयती का सामना करना पड़ता है। जिले के कई सहरानों में सुविधाओं के नाम पर इन आदिवासियों को न बिजली की सुविधा है और न ही पीने के पानी की कोई व्यवस्था है। चौतरफा गंदगी का साम्राज्य है। ऐसे में ये सहरिया आदिवासी नरक से भी बदतर जीवन व्यतीत कर रहे हैं।
शासन द्वारा सहरिया आदिवासियों के उत्त्थान के नाम पर कई योजनायें संचालित हैं पर सब कागजीकरण का शिकार हैं
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